muharram festiwal in hindi

मुहर्रम ताजिया क्या हैं जानिए क्या है इसका इतिहास और महत्व

मुहर्रम ताजिया क्या हैं इतिहास एवम कर्बला की कहानी 2020 (Muharram festival History, Karbala Story, Shayari, Day Of Ashura date In Hindi)

इस्लामी कैलेंडर को हिजरी कैलेंडर भी कहा जाता है। इसकी शुरुआत आज से 1440 साल पहले हुई। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत का पहला महीना होता है। मुहर्रम एक मुस्लिम त्यौहार हैं. मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए मुहर्रम एक बेहद ही पवित्र त्यौहार हैं. कहा जाता हैं की हिंदुओ के लिए जितनी पवित्र होली होती हैं मुसलमानों के लिए उतना ही पवित्र मुहर्रम होता हैं. जिस तरह से अंग्रेजी कलेंडर में जनवरी, फरवरी आदि महीने होते हैं उसी तरह से हिंदी माह में वैशाख आदि महीने होते हैं. लगभग हर धर्म की विभिन्न मान्यताओं के अनुसार उनका एक अलग समय या फिर कहें तो कैलेंडर होता है जिसमें अलग अलग महीने होते हैं. मुहर्रम से इस्लामिक कलैण्डर का नया साल शुरू होता हैं. तो चलिए आज के इस article मुहर्रम क्यूँ मनाया जाता है में हम इस मुहर्रम के बारे में जानते हैं.

इस लेख में हम यह सब topic के बारे में बात करने वाले हैं

  • मुहर्रम क्या है?
  • साल-ए-हिजरत क्या है?
  • इस्लामी कैलेंडर का महत्व
  • मुहर्रम के महिने की शुरुआत
  • मुहर्रम क्यों मनाया जाता हैं?
  • मुहर्रम का महत्व
  • मुहर्रम कैसे मनाया जाता हैं?
  • मुहर्रम का इतिहास एवम कर्बला की कहानी
  • मुहर्रम ताजिया क्या हैं ?

मुहर्रम क्या है – What is Muharram in Hindi

मुहर्रम इस्लामी वर्ष यानी हिजरी सन्‌ (मुस्लिम कलेंडर) का पहला महीना माना जाता हैं. मुहर्रम का महीना मुस्लिमो के लिए काफी पवित और 4 पवित्र महीनों में से एक माना जाता हैं. अन्य तीन पवित्र महीने जुल्कावदाह, जुलहिज्जा और रजब हैं. मान्यताओं के अनुसार खुद पैगम्बर मुहम्मद ने इन 4 महीनों को पवित्र बताया था.

जिस तरह से हिन्दू कलैण्डर के अनुसार ही हनरे त्यौहार आते हैं और दीवाली हर साल अलग अलग अलग – अलग डेट को आती हैं उसी तरह मुस्लिम त्यौहार भी मुस्लिम महीनों के अनुसार मनाए जाते है कहा जाता हैं की इस्लामी कलैण्डर में चाँद को देख कर तारीख तय की जाती है

साल-ए-हिजरत क्या है?

मुहर्रम को साल-ए-हिजरत भी कहा जाता है. ये वही दिन है जब मोहम्मद साहब मक्के से मदीने के लिए गए थे.

इस्लामी कैलेंडर का महत्व

अरब दुनिया में इस्लामी कैलेंडर का महत्व कामकाज के लिए भी होता है, लेकिन दुनिया में जहां-जहां भी मुसलमान हैं, वो किसी न किसी रूप में इस्लामी कैलेंडर से बंधे हुए और वो उसे जरूर फॉलो करते हैं क्योंकि पर्व त्यौहार इसी कैलेंडर के आधार पर मनाए जाते हैं।

ईद इस्लामी कैलेंडर के 10वें महीने की पहली तारीख को मनाई जाती है। यानि नौवें महीने रमजान के खत्म होने के बाद पहली शव्वाल (10वां महीना) को ईद मनाई जाती है। इस तरह Eid Ul Ajha इस्लामी कैलेंडर के आखिरी महीने ज़िलहिज्जा की 10वीं तारीख को मनाई जाती है। जबकि मुहर्रम का मुहर्रम के महीने में 10वीं तारीख को मनाया जाता है। इस तरह से शब-ए-बरात, शब-ए-कद्र जैसे त्यौहार इस्लामी कैलेंडर के अनुसार ही मनाए जाते हैं।

मुहर्रम के महिने की शुरुआत (Muharrum Ke Mahine ki Suruaat)

इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार साल का पहला महीना मुहर्रम होता है। जिसका पहला त्योहार मुहर्रम है जिसे आशूरा भी कहा जाता है। हालांकि इसे पर्व की सूची में नहीं रखा गया है, क्योंकि शिया मुस्लिम के लिए यह खुशी का नहीं, बल्कि मातम का दिन होता है, जिसे इमाम हुसैन की याद में शोक के तौर पर मनाया जाता है।

मुहर्रम क्यों मनाया जाता हैं? (Muharrum Kyu Manaya Jata Hai)

वैसे तो मुहर्रम को अधिकतर लोग एक महीना ही मानते हैं लेकिन कुछ लोग इसे त्यौहार भी मानते हैं. इस महीने का दसवां दिन काफी महत्वपूर्ण होता हैं. इस दिन पैगंबर मुहम्मद के नाती इमाम हुसैन की शहादत के लिए शौक किया जाता हैं. यह त्यौहार सबसे अधिक महत्वपूर्ण शिया मुसलमानों के लिए होता है. यह त्यौहार इमाम हुसैन और उनके साथियों के बलिदान की याद में ही मनाया जाता हैं.

अगर मुहर्रम की कहानी की बात करे तो कहा जाता है कि सन 680 में कर्बला नामक स्थान पर एक विशेष धर्म युद्ध हुआ था. यह युद्ध पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती हुसैन इब्न अली तथा यजीद के बीच में था. अपने धर्म की रक्षा करने के लिए इस युद्ध में हुसैन इब्न अली अपने 72 साथियों के साथ न्योछावर हो गए. कहा जाता है कि मोहर्रम के महीने का दसवां दिन वही दिन है जिस दिन हुसैन अली शहीद हुए थे. उनके शहादत के दुख के कारण इस दिन मुस्लिम लोग काले कपड़े पहनते हैं.

मुहर्रम का महत्व (Muharrum Ka Mahatva)

मुहर्रम किसी त्योहार या खुशी का महीना नहीं है, बल्कि ये महीना बेहद गम से भरा है. देखा जाये तो मुहर्रम इस्लामिक धर्म की रक्षा करने वाले हजरत हुसैन अली की शहादत को याद करने का समय होता है. मुस्लिमों के लिए यह समर्पण का त्यौहार होता है. इस महीने में शिया मुस्लिम लोग शोक मनाते हैं और सुन्नी मुसलमान इस महीने रोजे भी रखते हैं. कहा जाता है कि यजीद ने मुहर्रम के दसवे दिन हजरत हुसैन अली को और उनके परिवार वाले को मौत के घाट उतार दिया था.

हजरत हुसैन अली ने यजीद की बादशाहत स्वीकार नहीं की और अंत तक अपने धर्म के लिए लड़ते रहे. हुसैन का लक्ष्य स्वयं का समर्थन करते हुए भी धर्म को जिंदा रखना था. यह अधर्म पर धर्म की जीत थी. अधर्म पर धर्म की जीत के लिए जिस तरह से हिंदुओं के लिए दशहरा मायने रखता है उसी तरह से मुस्लिमों के लिए मुहर्रम मायने रखता है.

मुहर्रम कैसे मनाया जाता हैं? (Muharrum Kaise Manaya Jata Hai)

मोहर्रम का महीना मुसलमानों के लिए काफी पवित्र और खास होता है. मोहर्रम के नौवें और दसवें दिन काफी सारे मुसलमान रोजा रखते हैं. मोहर्रम के रोजे मुसलमानों के लिए अनिवार्य नहीं होते लेकिन हजरत मोहम्मद के मित्र इब्ने अब्बास के मुताबिक जो मुस्लिम मोहर्रम का रोजा रखता है उसके 2 सालो के गुनाह माफ हो जाते हैं. मोहर्रम महीने की दसवीं तारीख को निकाला जाने वाले ताजिया जुलूस भी काफी लोकप्रिय है.

आज बड़े ही धूमधाम से निकाला जाता है और इसकी तैयारियां महीनों पहले ही शुरू हो जाती है. ताजिया लकड़ी, रंगीन कागज और कपड़ों से गुंबदनुमा बनाया जाता हैं. इसके अंदर शहीद इमाम हुसैन की कब्र का आर्टिफिशियल अवतार बनाया जाता है. इसे झांकी की तरह सजाया जाता है और बड़े धूमधाम से निकाला जाता है.

इस जुलूस में इमाम हुसैन की कब्र को उतना ही सम्मान दिया जाता है जितना कि एक शहीद की कब्र को दिया जाता हैं. कुछ जगहों पर निकलने वाली ताजिया बड़ी ही लोकप्रिय है जिसे देखने के लिए देश विदेश से भी लोग आते हैं.

मुहर्रम का इतिहास एवम कर्बला की कहानी (Muharram History or story of karbala):

यह सिर्फ इस्लामी हिजरी सन्‌ का पहला महीना है। पूरी इस्लामी दुनिया में मुहर्रम की नौ और दस तारीख को मुसलमान रोजे रखते हैं और मस्जिदों-घरों में इबादत की जाती है। रहा सवाल भारत में ताजियादारी का तो यह एक शुद्ध भारतीय परंपरा है, जिसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है।
 
इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक ‍शिया संप्रदाय से था। तब से भारत के शिया -सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते आ रहे हैं। 
 
भारत में ताजिए के इतिहास और बादशाह तैमूर लंग का गहरा रिश्ता है। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन्‌ 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया।
 
फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में मेहमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से अपंग था।
 
तैमूर लंग शिया संप्रदाय से था और मुहर्रम माह में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों, वैद्यों ने उसे सफर के लिए मना किया था। 
 
बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने ऐसा करना चाहा, जिससे तैमूर खुश हो जाए। उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया।
 
कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से ‘कब्र’ या इमाम हुसैन की यादगार का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया।
 
तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई।
 
 
खासतौर पर दिल्ली के आसपास के जो शिया संप्रदाय के नवाब थे, उन्होंने तुरंत इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया। तब से लेकर आज तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है।
 
जबकि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शिया बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
 
68 वर्षीय तैमूर अपनी शुरू की गई ताजियों की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी में मुब्तिला होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। बीमारी के बावजूद उसने चीन अभियान की तैयारियां शुरू कीं, लेकिन 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में तैमूर का इंतकाल (निधन) हो गया। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही।
 

मुहर्रम ताजिया क्या हैं ? (Muharram Tazia Kya Hai)

यह बाँस से बनाई जाती हैं, यह झाकियों के जैसे सजाई जाती हैं. इसमें इमाम हुसैन की कब्र को बनाकर उसे शान से दफनाने जाते हैं. इसे ही शहीदों को श्रद्धांजलि देना कहते हैं,, इसमें मातम भी मनाया जाता हैं लेकिन फक्र के साथ शहीदों को याद किया जाता हैं.

यह ताजिया मुहर्रम के दस दिनों के बाद ग्यारहवे दिन निकाला जाता है, इसमें मेला सजता हैं. सभी इस्लामिक लोग इसमें शामिल होते हैं और पूर्वजो की कुर्बानी की गाथा ताजियों के जरिये आवाम को बताई जाती है. जिससे जोश और हौसले की कहानी जानकर वे अपने पूर्वजो पर फर्क महसूस कर सके.

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